जय श्री गणेश | ओम गणेशाय नमः ओम गन गणपतए नमः
भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि को भगवान शिव और माता पार्वती के पुत्र भगवान गणेश का जन्म हुआ था इसलिए देशभर में यह दिन बहुत धुमधाम से मनाया जाता है। इस दिन भक्त भगवान गणेश को घर लाकर उनकी पूजा करते हैं और उनका पसंदीदा भोग लगाते हैं। इस दिन भगवान गणेश की सच्चे मन से जो भी प्रार्थना करता है उसकी सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं।
पुराणों के अनुसार पार्वतीजी ने महागणपति की आराधना की और उनसे वरदान प्राप्त किया कि आप मेरे पुत्र के रूप में अवतार लें। इसलिए भगवान महागणपति गणेश के रूप में शिव-पार्वती के पुत्र होकर अवतरित हुए। जिस प्रकार भगवान विष्णु अनादि हैं एवं श्री राम,कृष्ण,वामन आदि अनेक अवतार हैं उसी प्रकार गणेश जी भी महागणपति के अवतार हैं।
शिव और पार्वती के विवाह के पश्चात महागणपति स्वयं बालक के रूप में भगवान् शिव और माता पार्वती के यहाँ अवतरित हुए। गणपति के जन्म पर शिवलोक में उत्सव का माहौल था। देवलोक से सभी देवी-देवता गणपति जी को आशीर्वाद देने शिवलोक पहुंचे। इनमें शनि देव भी शामिल थे। जब उत्सव खत्म हो गया तो शनिदेव ने भगवान विष्णु, ब्रह्मा और शिव को प्रणाम किया। अंत में माता पार्वती को भी उन्होंने प्रणाम किया। उन्होंने गणपति को देखे बिना ही आशीर्वाद दे दिया। यह देख माता पार्वती ने शनिदेव को टोका और पूछा कि वो उनके बेटे को देखे बिना ही क्यों जा रहे हैं।
माता पार्वती की बात का जवाब देते हुए शनिदेव ने कहा कि मेरा उसे देखना मंगलकारी नहीं है। अगर मेरी दृष्टि उस पर पड़ी तो उसके साथ अमंगल हो सकता है। इस पर माता पार्वती रुष्ट हो गईं और उनसे कहा कि वो उनके बेटे के जन्म से प्रसन्न नहीं हैं इसलिए ऐसा कह रहे हैं। साथ ही कहा कि उनकी आज्ञा है कि वो उनके पुत्र को देखें। उसे आशीर्वाद दें। इससे कुछ भी अमंगल नहीं होगा।
शनिदेव ने देवी पार्वती की आज्ञा का पालन किया। जैसे ही शनि महाराज ने गणपति को देखा तो उनका शीश कटकर हवा में विलीन हो गया। यह देख देवी पार्वती बेहोश हो गईं। इससे पूरे शिवलोक में हाहाकार मच गया। इस स्थिति को देख भगवान जंगल से एक नवजात हथिनी का शीश काट लाए। यह शीश उन्होंने गणपति को लगा दिया। बस तब से ही गणपति गजानन कहलाने लगे।
स्कंदपुराण के अनुसार ब्रह्माजी श्री गणेश जन्म कथा सुनाते हुए कहते हैं—नारद! पहले जो मैंने विधिपूर्वक गणेशकी उत्पत्तिका वर्णन किया था कि शनिकी दृष्टि पड़नेसे गणेशका मस्तक कट गया था, तब उसपर हाथीका मुख लगा दिया गया था, वह कल्पान्तरकी कथा है! अब श्वेतकल्पमें घटित हुई गणेशकी जन्म-कथाका वर्णन करता हूँ, जिसमें कृपालु शंकरने ही उनका मस्तक काट लिया था।
एक बार महादेवजी स्नान करने के लिए भोगावती नदी गए। उनके जाने के पश्चात पार्वती ने अपने तन के मैल से एक पुतला बनाया और उसका नाम ‘गणेश’ रखा। पार्वती ने उससे कहा- हे पुत्र! तुम एक मुगदल लेकर द्वार पर बैठ जाओ। मैं भीतर जाकर स्नान कर रही हूँ। जब तक मैं स्नान न कर लूं, तब तक तुम किसी भी पुरुष को भीतर मत आने देना।
भोगावती में स्नान करने के बाद जब भगवान शिवजी आए तो गणेश जी ने उन्हें द्वार पर रोक लिया। इसे शिवजी ने अपना अपमान समझा और क्रोधित होकर उनका सिर धड़ से अलग करके भीतर चले गए। पार्वती ने उन्हें नाराज देखकर समझा कि भोजन में विलंब होने के कारण महादेवजी नाराज हैं। इसलिए उन्होंने तत्काल दो थालियों में भोजन परोसकर शिवजी को बुलाया।
तब दूसरा थाल देखकर तनिक आश्चर्यचकित होकर शिवजी ने पूछा- यह दूसरा थाल किसके लिए हैं? पार्वती जी बोलीं- पुत्र गणेश के लिए हैं, जो बाहर द्वार पर पहरा दे रहा है।
यह सुनकर शिवजी और अधिक आश्चर्यचकित हुए। तुम्हारा पुत्र पहरा दे रहा है? हाँ नाथ! क्या आपने उसे देखा नहीं? देखा तो था, किन्तु मैंने तो अपने रोके जाने पर उसे कोई उद्दण्ड बालक समझकर उसका सिर काट दिया। यह सुनकर पार्वती जी बहुत कुपित हुईं। पार्वती की नाराजगी दूर करने के लिए शिवजी ने गणेश के धड़ पर हाथी का मस्तक लगा कर जीवनदान दे दिया। तभी से शिवजी ने उन्हें तमाम सामर्थ्य और शक्तियां प्रदान करते हुए प्रथम पूज्य और गणों का देव बनाया।
यह घटना भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को हुई थी। इसीलिए यह तिथि पुण्य पर्व के रूप में मनाई जाती है।
गणेश चतुर्थी व्रत की की कथा
एक दिन भगवान शिव तथा माता पार्वती नदी के किनारे टहल रहे थे। टहलते टहलते, माता पार्वती की चोपड़ खेलने की इच्छा हुई और उन्होंने शिव जी को चौपड़ खेलने के लिए कहा। भगवान शिव चौपड़ खेलने के लिए तैयार हो गए लेकिन उनके अलावा कोई तीसरा नहीं था, जो खेल में हार जीत का फैसला कर सके। ऐसे में माता पार्वती और शिव जी ने नदी के किनारे मिट्टी की मूर्ति बनाकर उसमें प्राण संचार कर दिया तथा उसे निर्णायक की भूमिका दी। माता पार्वती लगातार तीन से चार बार जीत गई , लेकिन बालक ने गलती से माता पार्वती को हारा हुआ और भगवान शिव को विजयी घोषित कर दिया। इस पर पार्वती जी को बालक पर क्रोध आ गया। क्रोध वश पार्वती जी ने बालक को लंगड़ा होने का शाप दे दिया। उसने माता से माफी मांगी, इस पर पार्वती जी ने कहा कि श्राप अब वापस नहीं लिया जा सकता, पर एक उपाय है। कुछ दिन बाद यहां पर कन्याएं पूजन के लिए आएंगी, उनसे गणेश चतुर्थी व्रत और पूजा की विधि पूछना। तुम भी वैसे ही व्रत और पूजा करना। इतना कहकर माता पार्वती हिमालय पर्वत पर चली गई। बालक ने माता पार्वती के कहे अनुसार वैसा ही किया। उसकी पूजा से प्रसन्न होकर गणेश जी प्रकट हुए और बालक ने उनसे वरदान मांगा कि मैं अपने पांवों पर चलकर कैलाश पर्वत जाकर अपने माता-पिता के दर्शन करना चाहता हूं।गणेश जी ने उसे वरदान दे दिया और अंतर्ध्यान हो गए।तब बालक अपने पांव पर चलकर कैलाश पर्वत पहुंच गया और शिव भगवान के चरणों में अपना सिर रख दिया। उसे ठीक हुआ देखकर भगवान शिव ने बालक से पूछा, तुमने ऐसा क्या उपाय किया है कि तुम ठीक होकर यहां तक पहुंच गए। तब बालक ने गणेश चतुर्थी के व्रत और पूजा विधि के बारे में भगवान शिव को बताया। भगवान शिव ने भी संकष्टी चतुर्थी का व्रत किया और माता पार्वती को पुनः प्राप्त कर लिया। जो भी व्यक्ति संकष्टी चतुर्थी का व्रत करते हैं गणेश भगवान उनके सभी संकटों को दूर कर देते हैं।
गणेश महोत्सव
गणेश महोत्सव गणेश चतुर्थी की तिथि से आरंभ होता है. घर में गणेश जी की स्थापना से ही गणेश महोत्सव का आरंभ माना जाता है. गणेश चतुर्थी के दिन गणेश प्रतिमा की स्थापना के बाद उन्हें प्रसन्न रखने के लिए 10 दिनों तक उन्हें मनपसंद आहार अर्पित किया जाता है। इन दस दिनों में गणेश जी की सेवा की जाती है। प्रथम दिन से लेकर अंतिम दस दिन तक मनपसंद आहार, पुष्प चढ़ाए जाते हैं। भगवान श्री गणेश को मोदक पसंद है, इसलिए प्रतिदिन उन्हें मोदक का भोग जरूर लगाया जाता है। अनंत चतुर्दशी के पावन अवसर पर श्री गणेश भगवान जी की प्रतिमा को बहते हुए नदी तालाब अथवा समुद्र में विसर्जित किया जाता है।
वैसे तो भारतवर्ष में गणेश उत्सव की परंपरा सदियों से चली आ रही है परंतु सार्वजनिक गणेश उत्सव शुरू करने का श्रेय बाल गंगाधर तिलक जी को जाता है. बाल गंगाधर तिलक ने जनमानस में सांस्कृतिक चेतना जगाने, अंग्रेजों के खिलाफ सन्देश देने और लोगों को एकजुट करने के लिए ही सार्वजनिक गणेश उत्सव की शुरूआत की. गणेश चतुर्थी के इस त्यौहार का स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भारत को एकजुट करने में बहुत महत्वपूर्ण योगदान रहा और अंततः वीरों के बलिदान और गणेश भगवान के आशीर्वाद से भारत को आजादी मिली |