शान्ताकारम् भुजगशयनम् पद्मनाभम् सुरेशम्
विश्वाधारम् गगनसदृशम् मेघवर्णम् शुभाङ्गम्।
लक्ष्मीकान्तम् कमलनयनम् योगिभिर्ध्यानगम्यम्
वन्दे विष्णुम् भवभयहरम् सर्वलोकैकनाथम्॥
आप सभी को सफला एकादशी की हार्दिक शुभकामनाएं🙏
ओम नमो भगवते वासुदेवाय
द्वापर युग में एक बार युधिष्ठिरने श्री कृष्ण से पूछा—स्वामिन्! पौष मासके कृष्णपक्षमें जो एकादशी होती है, उसका क्या नाम है? उसकी क्या विधि है तथा उसमें किस देवताकी पूजा की जाती है? यह बताइये। भगवान् श्रीकृष्णने कहा—राजेन्द्र! बतलाता हूँ, सुनो;
बड़ी-बड़ी दक्षिणावाले यज्ञोंसे भी मुझे उतना संतोष नहीं होता, जितना एकादशी-व्रतके अनुष्ठानसे होता है। इसलिये सर्वथा प्रयत्न करके एकादशीका व्रत करना चाहिये। पौष मासके कृष्णपक्षमेंआने वाली एकादशी का नाम ‘सफला’ एकादशी है। उस दिन भक्ति भावना से विधिपूर्वक नारायण भगवान् की पूजा करनी चाहिये। यह एकादशी प्राणी मात्र का कल्याण करनेवाली है। अतः इसका व्रत अवश्य करना उचित है। जैसे नागों में शेषनाग, पक्षियों में गरुड़, देवताओं में श्रीविष्णु तथा मनुष्यों में ब्राह्मण श्रेष्ठ है, उसी प्रकार सम्पूर्ण व्रतों में एकादशी तिथि श्रेष्ठ है।
राजन्! ‘सफला’ एकादशी को नाम-मन्त्रोंका उच्चारण करके फलों के द्वारा श्रीहरिका पूजन करे। नारियल के फल, सुपारी, बिजौरा नीबू, जमीरा नीबू, अनार, सुन्दर आँवला, लौंग, बेर तथा विशेषतः आम के फलों से देवदेवेश्वर श्री हरिकी पूजा करनी चाहिये। इसी प्रकार धूप-दीपसे भी भगवान्की अर्चना करे। ‘सफला’ एकादशीको विशेषरूपसे दीप-दान करनेका विधान है। रात को वैष्णव जन के साथ जागरण करना चाहिये। जागरण करने वाले को जिस फल की प्राप्ति होती है, वह हजारों वर्ष तपस्या करने से भी नहीं मिलता।
सफला एकादशी की कथा
नृपश्रेष्ठ! अब ‘सफला’ एकादशीकी शुभ कारिणी कथा सुनो। चम्पावती नाम से विख्यात एक पुरी है, जो कभी राजा माहिष्मतकी राजधानी थी। राजर्षि माहिष्मत के पाँच पुत्र थे। उनमें जो ज्येष्ठ था, वह सदा पापकर्ममें ही लगा रहता था। परस्त्रीगामी और वेश्यासक्त था। उसने पिताके धनको पापकर्ममें ही खर्च किया। वह सदा दुराचारपरायण तथा ब्राह्मणोंका निन्दक था। वैष्णवों और देवताओं की भी हमेशा निन्दा किया करता था। अपने पुत्रको ऐसा पापाचारी देखकर राजा माहिष्मतने राजकुमारों में उसका नाम लुम्भक रख दिया। फिर पिता और भाइयोंने मिलकर उसे राज्यसे बाहर निकाल दिया। लुम्भक उस नगरसे निकलकर गहन वन में चला गया। वहीं रहकर उस पापी ने पूरे नगर का धन लूट लिया।
एक दिन जब वह चोरी करने के लिये नगर में आया तो रात में पहरा दे रहे सिपाहियोंने उसे पकड़ लिया। किन्तु जब उसने खुद को राजा माहिष्मत का पुत्र बताया तो सिपाहियोंने उसे छोड़ दिया। फिर वह पापी वन में लौट आया और प्रतिदिन मांस तथा वृक्षोंके फल खाकर जीवन-निर्वाह करने लगा। उस दुष्ट का विश्राम-स्थान पीपल के पेड़ के निकट था। वह पीपल का पेड़ बहुत वर्षों पुराना था। उस घने जंगल में वह वृक्ष एक महान् देवता माना जाता था। पापबुद्धि लुम्भक वहीं निवास करता था। बहुत दिनोंके बाद एक दिन किसी संचित पुण्य के प्रभाव से उसके द्वारा एकादशी के व्रत का पालन हो गया।
पौष मास में कृष्णपक्ष की दशमी के दिन उस पापी लुम्भक ने वृक्षोंके फल खाये और वस्त्रहीन होने के कारण रातभर जाड़े का कष्ट भोगा। उस समय न तो उसे नींद आयी और न आराम ही मिला। वह निष्प्राण-सा हो रहा था। सूर्योदय होने पर भी उस पापी को होश नहीं आया। ‘सफला’ एकादशी के दिन भी लुम्भक बेहोश पड़ा रहा। दोपहर होने पर उसे होश आया। फिर इधर-उधर दृष्टि डालकर वह आसन से उठा और लँगड़े की भाँति पैरों से बार-बार लड़खड़ाता हुआ वन के भीतर गया। वह भूख से दुर्बल और पीड़ित हो रहा था।
राजन्! उस समय लुम्भक बहुत-से फल लेकर ज्यों ही विश्राम-स्थानपर लौटा, त्यों ही सूर्यदेव अस्त हो गये। तब उसने वृक्ष की जड़ में बहुत-से फल रखते हुए कहा—‘इन फलों से लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु संतुष्ट हों।’ यों कहकर लुम्भक ने रातभर नींद नहीं ली। इस प्रकार अनजाने में उसने एकादशी व्रत का पालन कर लिया। उस समय सहसा आकाशवाणी हुई—‘राजकुमार! तुम ‘सफला’ एकादशीके प्रसाद से राज्य और पुत्र प्राप्त करोगे।’ ‘बहुत अच्छा’ कहकर उसने वह वरदान स्वीकार किया। इसके बाद उसका रूप दिव्य हो गया। तबसे उसकी उत्तम बुद्धि भगवान् विष्णुके भजन में लग गयी। दिव्य आभूषणों की शोभा से सम्पन्न होकर उसने अकण्टक राज्य प्राप्त किया और पंद्रह वर्षों तक वह उसका संचालन करता रहा। उस समय भगवान् श्री कृष्ण की कृपा से उसे मनोज्ञ नामक पुत्र की प्राप्ति हुई। जब मनोज्ञ बड़ा हुआ, तब लुम्भक ने राज्य का कार्यभार उसे सौंप दिया और स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण के समीप चला गया, जहाँ जाकर मनुष्य कभी शोक में नहीं पड़ता।
राजन्! इस प्रकार जो ‘सफला’ एकादशीका उत्तम व्रत करता है, वह इस लोक में सुख भोगकर मृत्यु के पश्चात् मोक्षको प्राप्त होता है। संसार में वे मनुष्य धन्य हैं, जो ‘सफला’ एकादशी का व्रत करते हैं, उनका जीवन सफल हो जाता है। महाराज! जो भी मनुष्य सफला एकादशी की कथा को पढ़ते या सुनते हैं तथा उसके अनुसार आचरण करते हैं, उन्हें राजसूय यज्ञका फल प्राप्त होता है।
कथा समाप्त
कहानी सुनने वालों का भी भला और सुनाने वालों का भी भला